Monday, September 17, 2007

मैं कब कश्ती डुबोना

मैं कब कश्ती डुबोना चाहती थी
नदी के पार होना चाहती थी

वहाँ कुछ ख़्वाब हैं आराम फ़रमा
मैं जिन आंखों में सोना चाहती थी

बिछड़ते वक्त सबसे छुप के मैं भी
लिपटकर उससे रोना चाहती थी

मैं उससे ख़्वाब में मिलने की खातिर
ज़रा सी देर सोना चाहती थी

मैं अपनी उल्फ़तों की फ़स्ल सोनी
तेरी आंखों में बोना चाहती थी

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