Wednesday, September 26, 2007

वो मेरे अक्स को ...



वो मेरे अक्स को भी आईने से दूर रखता है
अगर मैं आइना देखूं तो वो मुझसे बिगड़ता है

कभी सुनता है जो गुन गुन मेरे नज़दीक भौंरे की
अजब है बाग़ में जा कर वो भौंरों से झगड़ता है

बुरी आदत है उसकी तन्ज़ करना बातों बातों में
अगर मैं रो पड़ी तो फिर वो मेरे साथ सुबकता है

मिसाल अब तक ये सुनते आये हैं हम अपने पुरखों से
अगर लड़ते हैं दो प्रेमी तो उनका प्यार बढ़ता है

नहीं समझेंगे सोनी लोग उसके दिल की फितरत को
मेरा दिल उसके ही दिल में तो रह रह कर धड़कता है

ए हवा यार तलक ..


ऎ हवा यार तलक जाने दे
फूल हूँ मुझको महक जाने दे

दिल की बेताबियाँ उस पर भी खुलें
दिल धड़कता है धड़क जाने दे

रोक पलकों पे न अपने आँसू
भर गए जाम छलक जाने दे

इश्क में दोनों जलेंगे मिलकर
आग कुछ और दहक जाने दे

ज़ख्म इंसानों के भर दे मौला
ये ज़मीं फूलों से ढक जाने दे

देख खिड़की में खड़ी हूँ कब से
चांद अब छत पे चमक जाने दे

तू फ़रिश्ता नहीं इन्सा बन जा
खु़द को थोड़ा सा बहक जाने दे
ऎ मेरे कृष्ण तेरी राधा को
एक ही पल को थिरक जाने दे

लोग खुद तोड़ने आ जायेंगे
प्यार का फल ज़रा पक जाने दे

मैं कैसे अपनी कहानी ...

मैं कैसे अपनी कहानी की इप्तिदा करती
तुम्हें न मांगती रब से तो और क्या करती

मेरी हया पे तुम्हीं कल को तब्सरा करते
जो लड़की होके भी मैं अर्जे मुद्दुआ करती

मैं सच कहूं मुझे तारीफ़ अच्छी लगती है
वो चांद कहते मुझे और मैं सुना करती

दिनों के बाद वो लौटा तो ख़ूब प्यार किया
अब ऐसे प्यार के मौसम में क्या गिला करती

बना के फूल वो ले जाता मुझको दफ़्तर में
तमाम दिन भी उसे खुशबुएं दिया करती

अब उसका काम है मुझको मना के ले जाना
क्षमा मैं मांगती उससे अगर ख़ता करती

ये फूल मेरे लिए ही तो रोज़ खिलते हैं
मैं इनसे प्यार न करती तो और क्या करती