Monday, February 16, 2009

चांद जल जाए ग़ज़ल

इक ज़रा धूप जो निकल जाए
बर्फ़ ग़म की अभी पिघल जाए

ऐसा चेहरा है मेरी आंखों में
चांद देखे तो चांद जल जाए

एक कांटा जो दिल के अंदर है
दिल से निकले तो दम निकल जाए

उसको ठोकर सलाम करती है
बाद गिरने के जो सम्भल जाए

ज़ख्मे दिल वो चराग़ हैं सोनी
शाम से पहले ही जो जल जाए