Thursday, December 22, 2011

प्रणय का दीप

पिया ने प्रीत की पायल मुझे कुछ ऐसी पहनाई
प्रणय का दीप देहरी पर सजाने मैं चली आई

ये बादल ज़ुल्फ़ मेरी देख मुंह अपना छुपाता है
की सूरज मांग भरने लालिमा लेकर के आता है
चाँद भी देखकर मुझको सदा नज़रें चुराता है
आसमां मेरे कदमों में सितारों को बिछाता है
मुझसे पूछ कर चलती है पिछवा और पुरवाई
प्रणय का दीप ........

मैं सागर से मिलूंगी मिल के सागर को खंगालूंगी
सीप के गर्भ से गर्वीले मोती को निकालूंगी
मैं राही प्रेम पथ की हूँ प्रबल संवेदना की हूँ
मुझे मत रोकना सरिता उमड़ती भावना की हूँ
मिलन की रागिनी मैंने पिया के अधरों से गाई
प्रणय का दीप .........

मैं तेरी ही कविता हूँ मैं तेरी ही समीक्ष! हूं
देह के व्याकरण में प्रेम के छंदों की शीक्ष! हूं.
मैं तेरा प्रश्न भी उत्तर भी हूं तेरी परिक्ष! हूं
अहिल्या ने जो की थी राम की मैं वो प्रतिक्ष! हूं
छुअन के वास्ते प्रियतम युगों से मैं हूं पथराई
प्रणय का दीप ......
( maf kijiyega is geet ke aakhri band me ek akchhar me mujhe aa ki matra lagana nahi aayi. aap khud samjhj gaye honge .dhanyavad)